जीतेन्द्र वसावा, तेजगढ़, गुजरात
पूरे देश में होली के उत्सव के साथ जुड़ी कई मान्यतायें हैं, जैसे, बालक्रीड़ा, काममय प्रेम, अशलील गीत। होली से जुड़ी इन मान्यताओं का बारीकी से अध्ययन करने पर हमें स्पष्ट होता है कि इनमें से बहुत सी मान्यताओं में भीलों की होली संबंधी मान्यताओं की झलक दिखाई देती है। धार्मिक ग्रंथों व भीलों की संस्कृति के गहन अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर आ सकते हैं कि आर्यों की धार्मिक मान्यताओं के विकास में द्रविड़, पुलिंद, निषाद, भील जैसी आर्यपूर्व संस्कृतियों का बड़ा योगदान रहा होगा।
बालकों और अशलीलता का संदर्भ- भविष्योत्तर पुराण 13219149 में भी मिलता है। उसमें एक कथा ऐसी हैं-
युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा कि फागुनी पूर्णिमा को प्रत्येक गाॅव तथा नगर में एक उत्सव क्यों होता हैं ? सभी घरों मे बालक क्रीड़ामय क्यों दिखाई देते हैं? और होलका क्यों जलाते है ? उसमें कौनसे देवता की पूजा की जाती हैं? किसने इस उत्सव का प्रसार किया और अडाडा क्या कहलाता है? कृष्ण ने युधिष्ठिर को राजा रघु विषयक एक दंत कथा सुनाई - द्रोणका नामक राक्षसी बालकों को रात-दिन डराती थी। उसे शिव का वरदान था। किंतु ग्रीष्मऋतु में लोग हॅंसें, आनंदित हों, बच्चे लकड़ी, घासफूस इकठठा कर आग लगाये, तालियां बजाएं, तीन बार प्रदक्षिणा करें, और अपनी प्रचलित भाषा में अशलील गीत गायें, तो यह शोरगुल और हॅंसने की आवाज़ों से राक्षसी मर जायेगी, ऐसा शिव ने कहा था।
इसलिए इस संदर्भ से ऐसा कह सकते है की पुराण पूर्व संस्कृति में होली संबंधित बालकों और अशलील गीतों का महत्व देखने को मिलता होगा तभी तो इस तरह की बातें वहाॅं लिखी गईं। लिंगपुराण में भी जानकारी है, कि होली बाल क्रीड़ाओं से पूर्ण और लोगों को ऐष्वर्य देने वाली हैं। काठकगुटय 73 9 में भी एक सूत्र है। राका होलक उसकी व्याख्या टीकाकार देवपाल ने इस तरह कही है - होला एक कर्म विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिये होता हैं। इस कृत्य में राका पूर्णचन्द्र देवता हैं।
वराहपुराण में है कि यह पटवास - विलासितापूर्ण क्रीड़ाओं वाली हैं। आरंभ का शब्द होलका था। और वह भारत के पूर्वी भागों में प्रचलित था। (जैमिनिः 1‘3‘15.16)
जैमिनि और काठकग्रहय में हुए वर्णनों को देख के कह सकते है कि शताब्दियों पूर्व से होलका का उत्सव प्रचलित था। कामसूत्र और भविष्योत्तर पुराण उसको वसंत ऋतु संबंधित मानते है। यानि कि यह उत्सव पुराणों के अनुसार वर्ष के अंत में होता था, और वंसतऋतु की काम प्रेममय लीलाओं का द्याोतक है। (धर्मशास्त्र का इतिहास प्र 85 से 80)
उपरोक्त संदर्भो से स्पष्ट रूप से हम ये अनुमान लगा सकते हैं-
1. आरंभ का शब्द होलका था। वह पूर्ण भारत में प्रचलित था।
2. होली - उत्सव में बालक्रीडा़ओं और लैंगिकता जताते हुए गीतों का विशेष महत्व है।
3. वह लोगों को ऐश्वर्य देने वाली और काम-प्रेममय लीलाओं की द्योतक है।
4. होली उत्सव, पुराणकाल पूर्व ई की सदियों पूर्व से चलता आ रहा है, लोक प्रचलित उत्सव है।
ऊपर के अनुमान और भील आदिवासियों की होली संबंधी मान्यताओं को देखते हुए कितने ही तथ्य हमारे सामने उभरकर आते हैं। इनमें से, भीलों की अधिकतर होली संबंधी मान्यताएॅं आज भी प्रचलित हैं, और परम्परा के रूप में चल रही हैं। बालक्रीडा़, काममय प्रेम, अशलील गीत यह सब देखकर भारत भर में प्रचलित होली उत्सव की धार्मिक मान्यताओं का सूक्ष्म रीति से विष्लेषण करते हुए हमें दीखता है कि आज की होली में, भीलों की होली संबंधी मान्यताओं के अंश विद्यमान हैं। एक तरह से हम यह कह सकते हैं कि आर्यों को ये मान्यताएॅं, द्रविड़, पुलिंद, निषाद या भील जैसी आर्यपूर्व प्रजा की संस्कृतियों से विरासत में मिलीं थीं। और ये संस्कृतियाॅं ही मूलभूत रूप से हिन्दु समाज की धार्मिक, सामाजिक और सांस्कतिक नींव मानी जा सकती हैं। गोपीचंद - भरथरी की कहानी पृ 35।
इसी प्रकार यदि हम भीलों की होली से जुड़ी क्रियाओं को देखें तो हम पाते हैं कि उपरोक्त पौराणिक ग्रंथों में उल्लेखित वर्णनों के अंष हमें आज भी दिखाई देते हैं। उदाहरण स्वरूप -
भीलों में होली से जुड़ी एक प्रथा है काण्डिया की स्थापना। इसका होली में बहुत अधिक महत्व है। इसमें बालक खेलते और नाचते हैं। काण्डिया की स्थानपना के लिये जो अरण्ड की डाल चाहिये उसे लेने के लिये गाॅंव का पुजारा, छोटे बालकों को लेकर जाता है। आज के शहरी संदर्भ में अशलील माने जाने वाले शब्दों की किकीयारी - चिल्लाने की आवाज़ - करते हैं। गीत गाते हैं। फिर बच्चे काण्डया के आसपास एकत्रित होकर गीत गाते हैं अपना पूरा साल अच्छा गुज़ारने के लिये काण्डया से संवाद करते हैं।
डूडली और बाल क्रिडाएॅं - होली पूजन विधि चल रही होती है उसी समय गाॅंव के छोटे बालक-बालिकाओं की दो टीम पूरे गाॅव में होली का फाग के रूप मंे गुड़, खोपरा, खजूर आदि चंदे के रूप में लेते हैं। ये टीम पूरे गाॅंव में घर-घर घूमकर गीत गाकर, नाच-कूद कर फाग लेते हैं। उनके गीतों में हंसी-मजाक भरपूर देखने को मिलता हैं। पूरे गाॅव में होली जलाने से पहले लिया हुआ फाग की प्रवृत्ति को डूडली कहा जाता है। फाग लेने के बाद सभी बालक कोई एक जगह पर साथ में बैठ कर एकत्रित हुए फाग को आपस में बांट कर खाते है।
इस पूरी रीति में बच्चों का विशेष महत्व आज भी हमें देखने को मिलता है जिस प्रकार लिंगपुराण में इसे बाल-क्रिड़ाओं से पूर्ण और ऐष्वर्य देने वाली बताया गया है।
आदिवासी संस्कृति के सूक्ष्म अध्ययन व अवलोकन करने से हम यह निश्कर्ष निकाल सकते हैं कि आज के धर्म ग्रंथों में जो लोक कहानियाॅं लिखीं हैं उनकी मूल प्रेरणा आर्यपूर्व आदिम समाज की संस्कृति ही होगी।
सम्पर्क - jitendra_academy@yahoo.com
0 comments :
Post a Comment