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Volunteer or Apply for Teacher Fellowship

Volunteer or Apply for Teacher Fellowship at Adharshila Learning Centre for the session 2017 – 18 Beginning October-2017 We ...

Adharshila Learning Centre is a unique school for adivasi children in Madhya Pradesh that views education as a tool for liberation...and a place of fun.

The Adharshila Learning Centre was started in 1998 by the Veer Khajiya Naik Manav Vikas Pratishthan.

The children have an active role in running the school.

Friday, March 21, 2014

चूल चलना

चूल चलने  का अर्थ है गरम अंगारों पर नंगे पैर चलना।
बड़वानी जि़ले के गाॅंवों में होली के दूसरे दिन से लगने वाले गाॅंव के मेलादों  - छोटे मेले - में एक प्रथा होती है चूल चलना ।  चूल चलना इन मेलादों का विशेष आकर्षण  होता है। 
आदिवासी महिलाएं अंगारों पर चूल चलते हुए। फ़ोटो - शेरशिंह सिंगोरिया 

चूल चलने  के बारे में यह जानकारी, बड़वानी जि़ले के ग्राम देवली के सुमजी पिता कोयला डूडवे, उम्र- 70 वष, गन्या पिता विरमा वास्कले उम्र- 60 वर्प व ग्राम चिचआमली के बाठिया पिता भासरा से पूछ कर लिखी गई है।

चूल बनाने के लिये मैदान में एक स्थान पर लगभग छः फ़ीट लम्बा और दो फ़ीट चैड़ा गढ्ढा खोदा जाता है। गढढे में अंगारे भर दिये जाते हैं। चूल बनाने का काम - इसकी पूजा, इसके लिये सिंदूर की पूजा आदि, गाॅंव के  हरिजन करते  हैं। अंगारों को हवा करने का काम भी गाॅंव के हरिजन ही करते हैं। उसके बाद गाॅव के पटेल, पुजारा, वारती, गांवडायला एंव आसपास गाॅंव के मुखिया पूजा करते है। इस पूजा के बाद ही लोग अंगारों पर चलने लगते हैं जिसे चूल चलना कहते हैं। होली के दूसरे दिन चूल चलने की रीति होती है।

जब किसी के घर में कोई बिमारी या विशेष प्रकार की समस्या जैसे - घर के किसी सदस्यों के हाथ-पैर दुखना, घर में कोई और बिमारी आ जाने पर लोग इन समस्याओं व बिमारियों से निपटने के लिये मानता रखकर चूल में चलते है। कुछ अन्य परेशानियाॅं जिनके कारण लोग यह मानता रखते हैं वे हैं - धन की कमी, खाना सही ढंग से नहीं मिल पाना व बच्चे नहीं होना यह मानता होली के एक महीने पहले डाॅंडा गाड़ने के समय लेते हैं। चूल चलने के बाद यह मानता ख़त्म होती है।

चूल चलने वालों को, चूल चलने के पहले विभिन्न प्रकार के नियमों का पालन करना होता है। ये नियम होली के डान्डा गाड़़ने के बाद से चालू हो जाते है जब लोग यह मानता लेते हैं। डॅंाडा गड़ने के एक महीने बाद होली के अगले दिन तक ये मन्नत रखने वाले लोग नियम पालन करते है। ये नियम इस प्रकार से है -


  • व्यक्ति को बिना चप्पल जूतों के चलना होता है।
  • इनके पैरों में मुर्गी की लैट्रिन नही लगनी चाहिये। 
  • इनको खटिया पर बैठने व सोने नही दिया जाता, घर के बाहर ही सोना। 
  • व्यक्ति को अषुभ कार्य नही करना व लोगों को खुष करना।
  • ब्रहमचारी बनकर रहना।

जो लोग अंगारों पर चलते है उन्हें बिना कमीज के रखा जाता है तथा उन्हे नहाने के लिए नावनी पर ले जाते है। फिर वहां से गीत गाते-गाते चूल स्थान तक आते है। वे लोग प्रार्थना करते कि गाॅंव में बिमारियां न आये, सभी लोग सुखी से जीवन जियें, वर्षा अच्छी हो, पालतू जानवर अच्छे पलें।

बड़वानी जि़ले के एक गाॅंव से ऐसी कहानी मिली कि डॅंाडा गड़ने के बाद सभी देवी-देवता छुट्टी ले लेते हैं और केवल होली माता ही सभी जिम्मेदारियाॅं लेती है। इसीलिए आदिवासी बारेला समाज तथा अन्य होली को मानने वाले समाज इस माह में षादी करना, मकान बनाना, लड़की को उसके ससुराल पहुंचाना जैसे शुभ कार्य नहीं करते हैं।

Tuesday, March 18, 2014

होली की लोक कथाओं में आर्य पूर्व संस्कृतियों का योगदान

   जीतेन्द्र वसावा, तेजगढ़, गुजरात



श्री जीतेन्द्र वसावा, आदिवासी एॅकैडमी, तेजगढ़, गुजरात, में प्रोफ़ेसर हैं। इस लेख में आज की प्रचलित संस्कृतियों को देखने का नया नज़रिया दे रहे हैं। इस विषय पर और बहुत शोध की ज़रूरत है व चर्चा की गुंजाइ है। इस लेख को यहाॅं देने का आय है कि इस विषय पर चर्चा को आगे बढ़ायें।

पूरे दे में होली के उत्सव के साथ जुड़ी कई मान्यतायें हैं, जैसे, बालक्रीड़ा, काममय प्रेम, अलील गीत। होली से जुड़ी इन मान्यताओं का बारीकी से अध्ययन करने पर हमें स्पष्ट होता है कि इनमें से बहुत सी मान्यताओं में भीलों की होली संबंधी मान्यताओं की झलक दिखाई देती है। धार्मिक ग्रंथों व भीलों की संस्कृति के गहन अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर आ सकते हैं कि आर्यों की धार्मिक मान्यताओं के विकास में द्रविड़, पुलिंद, निषाद, भील जैसी आर्यपूर्व संस्कृतियों का बड़ा योगदान रहा होगा।

बालकों और अलीलता का संदर्भ- भविष्योत्तर पुराण 13219149 में भी मिलता है। उसमें एक कथा ऐसी हैं-
युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा कि फागुनी पूर्णिमा को प्रत्येक गाॅव तथा नगर में एक उत्सव क्यों होता हैं ? सभी घरों मे बालक क्रीड़ामय क्यों दिखाई देते हैं? और होलका क्यों जलाते है ? उसमें कौनसे देवता की पूजा की जाती हैं? किसने इस उत्सव का प्रसार किया और अडाडा क्या कहलाता है? कृष्ण ने युधिष्ठिर को राजा रघु विषयक एक दंत कथा सुनाई - द्रोणका नामक राक्षसी बालकों को रात-दिन डराती थी। उसे शिव का वरदान था। किंतु ग्रीष्मऋतु में लोग हॅंसें, आनंदित हों, बच्चे लकड़ी, घासफूस इकठठा कर आग लगाये, तालियां बजाएं, तीन बार प्रदक्षिणा करें, और अपनी प्रचलित भाषा में लील गीत गायें, तो यह शोरगुल और हॅंसने की आवाज़ों से राक्षसी मर जायेगी, ऐसा शिव ने कहा था।

इसलिए इस संदर्भ से ऐसा कह सकते है की पुराण पूर्व संस्कृति में होली संबंधित बालकों और अलील गीतों का महत्व देखने को मिलता होगा तभी तो इस तरह की बातें वहाॅं लिखी गईं। लिंगपुराण में भी जानकारी है, कि होली बाल क्रीड़ाओं से पूर्ण और लोगों को ऐष्वर्य देने वाली हैं। काठकगुटय 73 9 में भी एक सूत्र है। राका होलक उसकी व्याख्या टीकाकार देवपाल ने इस तरह कही है - होला एक कर्म विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिये होता हैं। इस कृत्य में राका पूर्णचन्द्र देवता हैं।

वराहपुराण में है कि यह पटवास - विलासितापूर्ण क्रीड़ाओं वाली हैं। आरंभ का ब्द होलका था। और वह भारत के पूर्वी भागों में प्रचलित था। (जैमिनिः 1‘3‘15.16)

जैमिनि और काठकग्रहय में हुए वर्णनों को देख के कह सकते है कि ताब्दियों पूर्व से होलका का उत्सव प्रचलित था। कामसूत्र और भविष्योत्तर पुराण उसको वसंत ऋतु संबंधित मानते है। यानि कि यह उत्सव पुराणों के अनुसार वर्ष के अंत में होता था, और वंसतऋतु की काम प्रेममय लीलाओं का द्याोतक है। (धर्मशास्त्र का इतिहास प्र 85 से 80)

उपरोक्त संदर्भो से स्पष्ट रूप से हम ये अनुमान लगा सकते हैं-
1. आरंभ का ब्द होलका था। वह पूर्ण भारत में प्रचलित था।
2. होली - उत्सव में बालक्रीडा़ओं और लैंगिकता जताते हुए गीतों का विशेष महत्व है।
3. वह लोगों को ऐश्वर्य देने वाली और काम-प्रेममय लीलाओं की द्योतक है।
4. होली उत्सव, पुराणकाल पूर्व ई की सदियों पूर्व से चलता आ रहा है, लोक प्रचलित उत्सव है।

ऊपर के अनुमान और भील आदिवासियों की होली संबंधी मान्यताओं को देखते हुए कितने ही तथ्य हमारे सामने उभरकर आते हैं। इनमें से, भीलों की अधिकतर होली संबंधी मान्यताएॅं आज भी प्रचलित हैं, और परम्परा के रूप में चल रही हैं। बालक्रीडा़, काममय प्रेम, अलील गीत यह सब देखकर भारत भर में प्रचलित होली उत्सव की धार्मिक मान्यताओं का सूक्ष्म रीति से विष्लेषण करते हुए हमें दीखता है कि आज की होली में, भीलों की होली संबंधी  मान्यताओं के अं विद्यमान हैं। एक तरह से हम यह कह सकते हैं कि आर्यों को ये मान्यताएॅं, द्रविड़, पुलिंद, निषाद या भील जैसी आर्यपूर्व प्रजा की संस्कृतियों से विरासत में मिलीं थीं। और ये संस्कृतियाॅं ही मूलभूत रूप से हिन्दु समाज की धार्मिक, सामाजिक और सांस्कतिक नींव मानी जा सकती हैं। गोपीचंद - भरथरी की कहानी पृ 35।

इसी प्रकार यदि हम भीलों की होली से जुड़ी क्रियाओं को देखें तो हम पाते हैं कि उपरोक्त पौराणिक ग्रंथों में उल्लेखित वर्णनों के अंष हमें आज भी दिखाई देते हैं। उदाहरण स्वरूप -

भीलों में होली से जुड़ी एक प्रथा है काण्डिया की स्थापना। इसका होली में बहुत अधिक महत्व है। इसमें बालक खेलते और नाचते हैं। काण्डिया की स्थानपना के लिये जो अरण्ड की डाल चाहिये उसे लेने के लिये गाॅंव का पुजारा, छोटे बालकों को लेकर जाता है। आज के शहरी संदर्भ में अलील माने जाने वाले शब्दों की किकीयारी - चिल्लाने की आवाज़ - करते हैं। गीत गाते हैं। फिर बच्चे काण्डया के आसपास एकत्रित होकर गीत गाते हैं अपना पूरा साल अच्छा गुज़ारने के लिये काण्डया से संवाद करते हैं।

डूडली और बाल क्रिडाएॅं - होली पूजन विधि चल रही होती है उसी समय गाॅंव के छोटे बालक-बालिकाओं की दो टीम पूरे गाॅव में होली का फाग के रूप मंे गुड़, खोपरा, खजूर आदि चंदे के रूप में लेते हैं। ये टीम पूरे गाॅंव में घर-घर घूमकर गीत गाकर, नाच-कूद कर फाग लेते हैं। उनके गीतों में हंसी-मजाक भरपूर देखने को मिलता हैं। पूरे गाॅव में होली जलाने से पहले लिया हुआ फाग की प्रवृत्ति को डूडली कहा जाता है। फाग लेने के बाद सभी बालक कोई एक जगह पर साथ में बैठ कर एकत्रित हुए फाग को आपस में बांट कर खाते है।

इस पूरी रीति में बच्चों का विशेष महत्व आज भी हमें देखने को मिलता है जिस प्रकार लिंगपुराण में इसे बाल-क्रिड़ाओं से पूर्ण और ऐष्वर्य देने वाली बताया गया है।

आदिवासी संस्कृति के सूक्ष्म अध्ययन व अवलोकन करने से हम यह निश्कर्ष निकाल सकते हैं कि आज के धर्म ग्रंथों में जो लोक कहानियाॅं लिखीं हैं उनकी मूल प्रेरणा आर्यपूर्व आदिम समाज की संस्कृति ही होगी।

सम्पर्क - jitendra_academy@yahoo.com

Saturday, March 15, 2014

हुवूबाई (होली) की कहानी



सुरबान पिता लालसिंह भिलाला , कामत फलिया, ग्राम ककराना, जि़ला आलीराजपुर, से सुनकर, केमत  गवले ने लिखी।

जैसे मैने सुनी है..जितनी मुझे याद है। भूल चूक माफ़ करना।

स्वर्ग में इसका मायका। बाप का नाम कालीपला भूरिया बाण। माॅं, बाण काली पलास। हुवू बाई बहुत दुःख में थी। खाना नहीं मिलता था। कपड़े नहीं थे। माॅं बाप नें सोच लिया था कि यह लड़की ठीक नहीं है। किस्मत वाली नहीं है। इसलिये माता पिता ने ठीक से नहीं पाला। उसकी शादी नहीं हो रही थी। वो गुगलपुर बाज़ार जाती थी पेट भरने के लिये कुछ धंधा करने।

Pic- internet
ऐसे ही एक दिन गुगलपुर हाट जा रही थी कि काली चिड़ी पंख फैला कर चिड़ चिड़ करने लगी। हुवू बाई विचार करने लगी कि आज हाट में पता नहीं क्या होने वाला है, क्या नहीं। सोचते सोचते रास्ते पर चलती रही।
और आगे गई तो कौव्वी चिल्ला दी। और थोड़ी आगे गई तो साॅंप ने रास्ता रोक दिया। साॅंप को देखते हुए जब एक तरफ़ से चल रही थी तो पैर में ठोकर लग गई। ये सब देख कर उसे बहुत बुरा लगा और डर भी लगा। सिर पर हाथ रख कर बैठ गई और ज़ोर ज़ोर से रोने लगी।

रेत में बैठकर रो रही थी। समुद्र किनारे सोना सोवली नाम की बड़ी चील एक पेड़ पर बैठी थी। सवली घूवड हुवूबाई के पास आई और उसे अपने पंखों से घेर कर बैठ गई। हुवूबाई से पूछा, तुझे क्या तकलीफ़ है? क्यों रो रही है ?

हुवू बाई ने अपनी तकलीफ़ बताई तो सवली घूवड़ ने कहा चल मैं तुझे मैं भगवान के घर ले जाती हॅूं और उसे वो समुद्र किनारे कुरी भगवान के घर ले गई। कुरी भगवान सवल्ली घूवड़ का रखवाला है। माॅं कहो, बाप कहो, सब कुछ वही है। कुरी भगवान ने हुवीबाइ्र्र को नहलवाया धुलवाया और अच्छी तरह  खिलाया-पिलाया और कहा बेटी तुझे अच्छी जगह पर पहुॅंचाकर किसी अच्छे काम में लगा देंगे।

सब इंसानों की किसमत लिखने वाली लेखारी जोखारी हैं। तेरी किसमत लेखारी जोखारी ने कैसी लिखी है। लेखारी जोखारी का लिखा हुआ समुद्र में रहने वाला आंदलू बामण पढ़ सकता है। तेरा नाम गलत है या किसमत खराब है, वही पढ़ कर बतायेगा।

कौरी भगवान ने उसके नौकर बांडिया तूरीखण्ड को बुलाया जो सारे खण्डों में खबर देता था। बांडया तूरीखण्ड को आंदलू बामण के पास भेजा। आंदलू बामण सारी किताबों की गादी पर सो रहा था। देवता का घोड़ा तेज़ी आया और हाॅंफ़ता हुआ रूका। उसकी आवाज़ सुन कर आंदलू बामण चैंक कर उठा और गोफ़ण लेकर तैयार हो गया। उसे लगा कोई दरिया से पानी चुराने आया है। उसने अपने साथी पांगले को आवाज़ लगाई और देखने को कहा कि कौन आया है। पांगला पहचान गया कि यह तो कौरी भगवान का नौकर है।

बांडिया तूरीखण्ड घोड़े से नीचे उतरा। एक दूसरे से खैरियत पूछी। फिर बांडिया ने कहा कि तुमसे बहुत ज़रूरी काम है। तुम्हारी ये किताबें लो और मेरे साथ लेखारी जोखारी के पास चलो। पांगला घोड़े पर बैठ नहीं सकता था इसलिये उसे एक थैली में घोड़े के एक तरफ़ लटकाया और दूसरी तरफ़ एक और थैले में लेखारी जुखारी की किताबें भर कर लटका दीं। साथ में आंदला को बैठाया और भगवान के पास ले आया।

भगवान के घर पहॅुंचे तो भगवान ने खाना बनाकर रखा था। आंदला और पांगला को खिलाया। आंधला बामण की गादी उसके साथ में थी। वो गादी लगाकर बैठ गया। कौरी भगवान ने आंधला से कहा कि इस बच्ची के माॅं बाप नहीं हैं। बताओ इसका नाम और इसकी जन्म तारीख क्या है ?

आंदला बामण ने लड़की का नाम ढॅूंढा और कहा कि इसका नाम तो हुवूबाई  है। पूर्णिमा के दिन इसका जन्म हुआ है। किसमत ठीक भी है और खराब भी। कपड़ा लत्ता सब सोने का मिलने वाला है इसे। कौरी भगवान ने सोचा कि तब तो सुनार के घर जाना पड़ेगा और इसके सोने के कपड़े बनवाने पड़ेंगे।

हुवूबाई ने पूछा कि मुझे बाज़ार जाते में साॅंप ने रोक लिया - इसका क्या अर्थ होगा?  तू गूगलपुर बाज़ार जा। सब ठीक हो जायेगा। वहाॅं पर सुनार की गली में जाकर पूछना, वहाॅं तुझे सब चीज़ें मिल जायेंगी। जा बेट जा। कहकर कौरी भगवान ने उसे भेज दिया। आंदला और पांगला को वापिस समुद्र किनारे भेज दिया।

गूगलपुर में सुनार की गली में जाकर हुवूबाई ने पूछा कि सोने की साड़ी कहाॅं मिलेगी ? सुनार ने कहा कि यह साड़ी तो बनानी पड़ेगी। तुम बैठो मैं अभी बना देता हॅूं। सुनार ने सोने का एक टुकड़ा गला कर, नाप हुवूबाई का नाप लेकर एक साड़ी बना दी।

सुनार ने साड़ी बना दी और पूछा और क्या चाहिये ? हुवूबाई ने कहा कि एक सोने का डण्डा और एक सोने की झग बना देना। बाद में बोली कि मुझे धूप में कम दिखाई देता है तो मेरे लिये सोने की आॅंखें भी बना देना। सुनार ने सोने की आॅंखें भी बना दीं।

सोने की साड़ी, सोने का डण्डा और सोने की झज लेकर तोरणमाल पहॅुंची। तोरणमाल पर भूंई राजा बैठा था। भूंई राजा के पास जाकर हुवूबाई ने कहा कि मुझे भोजन चाहिये। भूंई राजा ने पूछा कि कैसा भोजन चाहिये ? हुवूबाई ने कहा कि देवताओं को खिलाने के लिये और मनुष्यों को खिलाने के लिये भोजन चाहिये। इस पर भूंई राजा ने कहा कि आंधाखूई व सीताखूई में महादेव-गौरा मो मालूम है कि क्या क्या भोजन चाहिये। भोजन के मालिक महादेव गौरा हैं।

वहाॅं से हुवूबाई महादेव गौरा के पास आंधाखूई में गई। महादेव गौरा ने उससे पूछा कि तुझे किस किस को खिलाने के लिये भोजन चाहिये ? हुवूबाई ने कहा कि पहले देवताओं को खिलाने के लिये सामान दे दे। गौरा ने नारियल, षक्कर के कंगन, खजूर, काकड़ी, दाली और मांजूण दे दिया।

फिर हुवूबाई ने कहा कि अब मनुष्यों के खाने की चीज़े दे दे। धरती के लोगों के लिये बुकडि़या चांतिया व सेंवई दी। सारा सामान बाॅंध लिया पर उठा नहीं पा रही थी। भूंई राजा ने कहा कि बेटी तेरे लिये मैं एक गाड़ी बनवा देता हॅंू। फिर उसने बढ़ई के घर जाकर गाड़ी बनवाई। टेमरू और आक की लकड़ी से गाड़ी का धूरा और किल्ली बनवाई।

हुवूबाई को लेजाने के लिये झगलिया भूत को साथ में भेजा। सामान गाड़ी में भर दिया फिर झगलिया बैल जोड़ी और बैलों को जूपने का सामान ढूॅंढने गया तो उसे बैल नहीं मिले। फिर बैल मिले तो झगलिया से जुपा नहीं रहे थे। हुवूबाई रोने लगी।

रोना सुनकर दो मुॅंहे साॅंप ने कहा कि मैं बैलों के उपर रखने वाली लकड़ी बन जाउॅंगा। कोरफड़ ने कहा कि मैं इस लकड़ी से बैलों को बाॅंधने वाली रस्सी बन जाउॅंगा। हुवूबाई का रोना सुनकर धरती में से दीवड़ और लांडिया निकले और कहा हम बैल की नात और मुरखी बन जायेंगे।

जैसे ही गाड़ी चलाई, गाड़ी टूट गई। फिर हुवूबाई रोने लगी तो अजगर ने आकर गाड़ी फिर से जोड़ दी। गाड़ी तैयार हो गई। सोने का डण्डा और सारा सामान गाड़ी में भर दिया। झगलिया भूत से कहा कि पूनम पर अपने को मथवाड़ में राणीकाजल, कुंदू राणा और डोंगरिया - इन देवताओं के घर पहॅुंचना है। जल्दी गाड़ी हाक।
भंग्रिया को मालूम था कि हूवी बाई तोरणमाल हाट करने गई है। वो रास्ते में ढोल, बाजे, घुंघरू, बाॅंसुरी लेकर नाच कूद करने लगा। तोरणमाल से गाड़ी चालू हुई और जब रास्ते पर आई तो भंगोरिया मुॅंह पर कालिक पोत कर और हाथ में गुलाल लेकर गाड़ी के आगे आ गया। हूवी बाई और उसके नौकर की आॅंखों में गुलाल फेंक दिया। गाड़ी में रखी, एक सोने की साड़ी और खाने का थोड़ा सामान - खजूर, सेव, शक्करकंदी आदि - भंग्रिया ने लूट लिया। सोने का डण्डा बहुत भारी था, उससे नहीं उठा।...

Boodla.    Pic.- C.Mishra
बचा हुआ सामान लेकर मथवाड़ पहॅुंची। मथवाड़ में डोंगरिया देव एक महीने का उपवास रखा था और वो अपने साथियों के साथ रायबूडला बनकर घर के बाहर रह रहा था। हुवूबाई भूरिया डूॅंगर में डोंगरिया के पास पहॅुंची। डोंगरिया ने पूछा - क्या क्या सामान लाई हो ?

Palash flowers
सब सामान है मेरे पास। थोड़ा सामान मेरा भंग्रिया ने लूट लिया। तुम्हे क्या चाहिये वो बताओ।
हुवूबाई के सामान में से डोंगरिया ने सोने का डण्डा माॅंग लिया। उसकी सोने की आॅंखंे भी माॅंग लीं। हुवू बाई ने पूछा कि अब मैं धरती के मनुष्यों के लिये क्या ले जाउॅंगी ? डोंगरिया ने पलाष के फूलों से उसकी आॅंखें बना दीं। सोने के डण्डे के बदले सागवान और बाॅंस का डण्डा दे दिया। बाद में उसकी योनी छीन ली और उसके बदले सेमल का डोंडा लगा दिया।

Rani Kajal Mathwad
मथवाड़ डोंगरिया के पास से हुवूबाई धरती पर किसान के घर पूनम के दिन पहुॅंची। पूनम के दिन ही हुवूबाई का जन्म हुआ था। जन्म के दिन किसान के घर पहॅुंच गई। किसान से कहा कि पूनम के दिन मैं तुम्हारे घर आई हूॅं - आज ही मेरी जन्म तारीक है और आज ही मेरी मृत्यु। रीति करने का सब सामान मैं लाई हॅूं। ये मेरी रीति छोड़ना मत। मेरी सेवा करना, तुम्हे पूरा फल मिलेगा। ऐसा कह कर हुवूबाई गई और  लकडि़यों  रख कर उसने जला लिया। कौरी भगवान आये और हुवूबाई  और झोज को बचा लिया।.....किसान से कहा कि मेरी राख काम में लेना.............

संग्रहकर्ता - केमत गवले। टंकन - अमित

Tuesday, March 11, 2014

भंगोरिया या भंग्रियू

Pic- Rohit Jain

ये कहानियाॅं जामसिंह पिता मटला ग्राम लखनकोट, सुरबान ग्राम ककराना, कर तड़वला, आलीराजपुर, मुकेश डुडवे बड़वानी आदि लोगों से पूछ कर संकलित की गई हैं। युवानिया पत्रिका आधारशिला शिक्षण केन्द्र द्वारा आदिवासी संस्कृति को समझने के लिये लोक कथाएॅं किंवदंतियाॅं एकत्रित की जा रही हैं।
भंग्रिया शब्द कहाॅं से आया होगा? इस शब्द इस मेले/हाट को लेकर अनेक प्रकार की भ्राॅंतियाॅं हैं। अधिकतर आदिवासियों को भी नहीं मालूम कि इस का अर्थ क्या है। शहर के लोग इस शब्द को लेकर गलत सलत  बातें प्रचारित करते हैं। Yuवानिया ने इसका सही अर्थ और उत्पत्ति जानने की कोषिष की है। इसके लिये हमने बड़वानी, आलीराजपुर और झाबुआ जि़लों के अनेक लोगों से पूछा।    यह काम अभी अधूरा है लेकिन अबतक की जानकारियों को आप से बाॅंटने के लिये यहाॅं लिख रहे हैं।
बारेली, पावरी, भीलाली भाषा के भंग्रिया ब्द को हिन्दी भाषी, हर अखबार वालों नें भगोरिया बना दिया है और वे इसका संधि विच्छेद करके बताते हैं कि भगोरिया मतलब भगा के ले जाने वाला मेला। इस तरह के अर्थ निकाल कर वे प्रचारित करते हैं कि आदिवासियों में यह प्रथा है कि इस मेले में युवक युवतियों को भगा कर ले जाते हैं। कुछ बाहरी लोग इसे आदिवासियों का स्वयंवर तक कहने लगे हैं। भॅंग्रिया भील, भीलाला, बारेला पावरा आदिवासियों का एक प्रमुख मेला है। आदिवासी बहुल पष्चिम मध्यप्रदेष, पूर्वी गुजरात उत्तर महाराष्ट्र के झाबुआ, धार, बड़वानी, खरगोन, आलीराजपुर, छोटा उदयपुर, नन्दुरबार जिलों में यह मेला होली के पूर्व सप्ताह में हर हाट बाजार में भरता है।
Pic. - Rohit Jain
इसकी उत्पत्ती की अनेक कहानियाॅं अलग अलग इलाकों में प्रचलित हैं।
झाबुआ जि़ले की एक कहानी के अनुसार भगोर गाॅंव से यह नाम पड़ा। कहते हैं कि झाबुआ के पास भगोर गाॅंव में एक राजा रहता था। एक बार राजा का नौकर, राजा की लड़की को लेकर भाग गया। राजा ने उन्हे बहुत ढॅंूढा पर वे नहीं मिले। उन्हे पकड़ने के लिये राजा ने मेला भरने की तरकीब सोची। राजा ने सोचा कि मेला देखने के लिये वे दोनो ज़रूर आयेगें तब उन्हें पकड़ लेंगे। इस तरह भंग्रिया मेले की षुरूआत हुई।
इसी तरह की कहानी धार जि़ले के डही गांव में भी सुनी गई।
एक अन्य कहानी के अनुसार झाबुआ के नजदीक के भगोर गाॅंव में भगु नामक राजा का राज्याभिषेक समारोह किया गया था। तबसे हर वर्ष मेला भरने की परम्परा की षुरूआत हो गई जो आज तक भंग्रिया के रूप में जारी है। झाबुआ जि़ले में आज भी भगोर उप जाति का भील समुदाय निवास करता है।
बड़वानी आलीराजपुर के बारेला भीलाला समाज की होली संबंधी लोक कथाओं में भंग्रिया नाम के एक पात्र का वर्णन है। लोगों से बात करने पर पता चलता है कि भंग्रिया दलित समाज का लड़का   है। ये कहानियाॅं गीत, आदिवासियों और दलित जातियों के प्राचीन संबंधों की ओर भी इंगित करते हैं।
आलीराजपुर की कहानी का कुछ अंष -
.........सोनान डांडू ने आखा सामान गाड़ी मां भर लेदी। हूवी काजे कोयो कि पूनम पर आपणो काजे मथवाड़ देवतान घर राणीकाजल ने कॅंूदू राणा ने डोंगरिया घर पूगणो छे। गाड़ी मामार हाक कौरीन कौहली। 
भंग्रिया काजे मालूम हतो के होलका तोरणमाल हाट करने गयली छे। च्यू वाट मा ढोल, बाजा घुघरा ने पावली लींन नाच-कूद करने बाज गयलो। तोरणमाल मां गाड़ी चालू कौरी ने भंगरियू गाल पर कवास लागाड़ीन ने गुलाल लिन गाड़ी अगल फिर वलयू। ने हूवीन् पावर ने होलकान् डूला मां गुलाल नाखिन उड़ावी देदलू। गाड़ी मां एक सोनान साड़ी ने खाणेन थूड़क सामान होता - खान काकड़ी, खारिया, सकरिया -ये लूट लेदलू। सोनान डांडू नी हाकलाईलो।
इस कहानी में बताया गया है ......
........ सोने का डण्डा और सारा सामान गाड़ी में भर लिया। होली ने कहा कि पूनम पर हमें मथवाड़ देवताओं के घर, राणीकाजल, कुंदू राणा डोंगरिया के घर पहॅुंचना है। गाड़ी जल्दी गेर।
भंग्रिया को मालूम था कि हूवी बाई तोरणमाल हाट करने गई है। वो रास्ते में ढोल, बाजे, घुंघरू, बाॅंसुरी लेकर नाच कूद करने लगा। तोरणमाल से गाड़ी चालू हुई और जब रास्ते पर आई तो भंगोरिया मुॅंह पर कालिक पोत कर और हाथ में गुलाल लेकर गाड़ी के आगे गया। हूवी बाई और उसके नौकर की आॅंखों में गुलाल फेंक दिया। गाड़ी में रखी, एक सोने की साड़ी और खाने का थोड़ा सामान - खजूर, सेव, शक्करकंदी आदि - भंग्रिया ने लूट लिया। सोने का डण्डा बहुत भारी था, उससे नहीं उठा।......हुवु बाई (होली) की पूरी कहानी को यहाँ पढ़ा जा सकता है.

अलग अलग इलाकों में ऐसी अनेक कहानियाॅं हैं। लखनकोट गाॅंव की एक कहानी में बताया गया है कि सुमना नायक की लड़की ने दरिया में मेला लगाया। मेले में आये लोग नाच नहीं रहे थे। उन सभी लोगों को सुमना नायक की लड़की मारने लगी जिससे लोगों में उछल - कुद होने लगी। और जब साथ में ढोल बजाया तो यह उछल कूद नाच में बदल गई।

बड़वानी जि़ले की कहानी के अनुसार एक बार ओलीबाई (होलीबाई) को रास्ते मंे घोड़े पर बैठकर जाता हुआ भंगी राजा मिला। ओलीबाई उसे देखकर बोली - "bहुत अच्छा राजा मिला है।" फिर उस राजा और ओलीबाई में प्रेम हो गया और विवाह भी हो गया। होली का राजा से एक बालक हुआ जिसका नाम भंगोरिया था। तब से लोग भंगोरिया मना रहे है।
आलीराजपुर में सुने एक होली के गीत की एक पंक्ति है -
भौंगी ने घौरे रौहली हुवूबाई, भौंगी ने घौरे रौई ........
भौंगुरियू नावे पाड़ी वो देदो, भौंगुरियू नावे पाड़यो .....
इस गीत में भी बड़वानी की कहानी जैसा अर्थ निकलता है।
बड़वानी जि़ले में होली के बाद गाॅंवों में छोटे छोटे मेले होते हैं। इन मेलों में कुछ लोग मन्नत लेकर अंगारों पर चलते हैं। इन मेलों के स्थान अंगारों की लकड़ी आदि की पूजा गाॅंव के हरिजन ही करते हैं।
इन किंवदिंतियों में उल्लेखित पात्र - हूवी बाई, राणीकाजल, कुंदू राणो, डूंगरिया रावत, भंग्रयु -  ये इस क्षेत्र के आदिवासियों के दैविक पात्र हैं। इनका उल्लेख इनकी विस्तृत कहानियाॅं आदिवासियों द्वारा गाये जाने वाले गायणे में मिलती हैं।
लोगों से बात करने पर यह भी स्पष्ट हुआ कि ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि भंगोरिया खास तौर से युवक युवतियों की जोडि़याॅं बनाने के लिये लगाया जाने वाला मेला है। यह एक विषिष्ट हाट है जिसमें मेला लगता है जिसमें लोग होली के त्योहार के लिये सामान खरीदते हैं। होली एक प्रमुख त्योहार होने के कारण इस हाट का विषेष महत्व है। लोगों के मन में भंगोरिया के लिये बहुत अधिक उत्साह उल्लास होता है। गाॅंव के लड़के लड़की नये कपड़े सिलवाते हैं। गाॅंवों से लोग ढोल लेकर आते हैं। किसका ढोल ज़ोर से बजा, यह एक चर्चा का विषय रहता है। ऐसे जो के माहौल में युवाओं और युवतियों के बीच आॅंखें चार होना, अपने दिल की बात का इज़हार होना स्वाभाविक है। इसे स्वयंवर या वैलेन्टइन मेला या प्रणय पर्व कहना बिलकुल आपत्तिजनक है।
यदि यह प्रणय पर्व है और शहर के लोग इसके बारे में शौक से लिख रहे हैं तो उन्हे हरों की सड़कों पर, दुकानों पर मोटरसाइकिलों पर खड़े लड़कों द्वारा आती जाती लड़कियों पर किये जा रहे रों के बारे में भी ऐसी ही खुषी से लिखना चाहिये और उनके फ़ोटो भी अपलोड करने चाहियें। 

संग्रहकर्ता - प्रकाष, सुरेष, केमत। 
टंकन - सुरेष।
संपादन - अमित
युवानिया - पष्चिम मध्य प्रदेष के युवाओं की अनियतकालीन पत्रिक है जिसमें इस क्षेत्र के युवाओं को अभिव्यक्ति का अवसर दिया जाता है इस क्षेत्र उनसे जुड़े विषयों पर आलेख छापे जाते हैं।