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Friday, March 21, 2014

चूल चलना

चूल चलने  का अर्थ है गरम अंगारों पर नंगे पैर चलना।
बड़वानी जि़ले के गाॅंवों में होली के दूसरे दिन से लगने वाले गाॅंव के मेलादों  - छोटे मेले - में एक प्रथा होती है चूल चलना ।  चूल चलना इन मेलादों का विशेष आकर्षण  होता है। 
आदिवासी महिलाएं अंगारों पर चूल चलते हुए। फ़ोटो - शेरशिंह सिंगोरिया 

चूल चलने  के बारे में यह जानकारी, बड़वानी जि़ले के ग्राम देवली के सुमजी पिता कोयला डूडवे, उम्र- 70 वष, गन्या पिता विरमा वास्कले उम्र- 60 वर्प व ग्राम चिचआमली के बाठिया पिता भासरा से पूछ कर लिखी गई है।

चूल बनाने के लिये मैदान में एक स्थान पर लगभग छः फ़ीट लम्बा और दो फ़ीट चैड़ा गढ्ढा खोदा जाता है। गढढे में अंगारे भर दिये जाते हैं। चूल बनाने का काम - इसकी पूजा, इसके लिये सिंदूर की पूजा आदि, गाॅंव के  हरिजन करते  हैं। अंगारों को हवा करने का काम भी गाॅंव के हरिजन ही करते हैं। उसके बाद गाॅव के पटेल, पुजारा, वारती, गांवडायला एंव आसपास गाॅंव के मुखिया पूजा करते है। इस पूजा के बाद ही लोग अंगारों पर चलने लगते हैं जिसे चूल चलना कहते हैं। होली के दूसरे दिन चूल चलने की रीति होती है।

जब किसी के घर में कोई बिमारी या विशेष प्रकार की समस्या जैसे - घर के किसी सदस्यों के हाथ-पैर दुखना, घर में कोई और बिमारी आ जाने पर लोग इन समस्याओं व बिमारियों से निपटने के लिये मानता रखकर चूल में चलते है। कुछ अन्य परेशानियाॅं जिनके कारण लोग यह मानता रखते हैं वे हैं - धन की कमी, खाना सही ढंग से नहीं मिल पाना व बच्चे नहीं होना यह मानता होली के एक महीने पहले डाॅंडा गाड़ने के समय लेते हैं। चूल चलने के बाद यह मानता ख़त्म होती है।

चूल चलने वालों को, चूल चलने के पहले विभिन्न प्रकार के नियमों का पालन करना होता है। ये नियम होली के डान्डा गाड़़ने के बाद से चालू हो जाते है जब लोग यह मानता लेते हैं। डॅंाडा गड़ने के एक महीने बाद होली के अगले दिन तक ये मन्नत रखने वाले लोग नियम पालन करते है। ये नियम इस प्रकार से है -


  • व्यक्ति को बिना चप्पल जूतों के चलना होता है।
  • इनके पैरों में मुर्गी की लैट्रिन नही लगनी चाहिये। 
  • इनको खटिया पर बैठने व सोने नही दिया जाता, घर के बाहर ही सोना। 
  • व्यक्ति को अषुभ कार्य नही करना व लोगों को खुष करना।
  • ब्रहमचारी बनकर रहना।

जो लोग अंगारों पर चलते है उन्हें बिना कमीज के रखा जाता है तथा उन्हे नहाने के लिए नावनी पर ले जाते है। फिर वहां से गीत गाते-गाते चूल स्थान तक आते है। वे लोग प्रार्थना करते कि गाॅंव में बिमारियां न आये, सभी लोग सुखी से जीवन जियें, वर्षा अच्छी हो, पालतू जानवर अच्छे पलें।

बड़वानी जि़ले के एक गाॅंव से ऐसी कहानी मिली कि डॅंाडा गड़ने के बाद सभी देवी-देवता छुट्टी ले लेते हैं और केवल होली माता ही सभी जिम्मेदारियाॅं लेती है। इसीलिए आदिवासी बारेला समाज तथा अन्य होली को मानने वाले समाज इस माह में षादी करना, मकान बनाना, लड़की को उसके ससुराल पहुंचाना जैसे शुभ कार्य नहीं करते हैं।

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